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Dhrupad – ध्रुपद गायन शैली

ध्रुपद गायन शैली
ध्रुपद गायन शैली

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ध्रुपद संगीत – Dhrupad Gayan Shaili

Dhrupad Gayan – ध्रुपद भारतीय शास्त्रीय संगीत की सबसे पुरानी और पारंपरिक गायन शैलियों में से एक है। इसका विकास मध्यकालीन भारत में हुआ और यह संगीत की एक महत्वपूर्ण और गंभीर शैली मानी जाती है। ध्रुपद शब्द “ध्रु” (अटल) और “पद” (कविता) से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है “अटल पद” या “स्थिर कविता”।

अभी तक एक मत से यह निश्चित नहीं हो पाया हैं की ध्रुपद का अविष्कार कब और किसने किया। इस संबंध में विद्वानों की कई मत है।  कुछ विद्वानों का विचार है कि द्रुपद की रचना 13वीं शताब्दी में हुई तथा कुछ के मतानुसार 15वीं शताब्दी में ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने इसकी रचना की।  जो कुछ भी हो, इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि राजा मानसिंह तोमर ने द्रुपद के प्रचार में बहुत हाथ बटाया। अकबर के समय में तानसेन और इनके गुरु स्वामी हरिदास डागुर, नायक बैजू और गोपाल आदि प्रख्यात गायक ध्रुपद ही गाते थे। 

ध्रुपद की विशेषताएँ

  1. प्राचीनता: ध्रुपद का इतिहास बहुत पुराना है और यह वैदिक काल की वैदिक संगीत परंपराओं से विकसित हुआ माना जाता है।

  2. गंभीरता और गरिमा: ध्रुपद गायन में गंभीरता और गरिमा होती है। यह एक पवित्र और शास्त्रीय संगीत शैली है जिसमें गायक की एकाग्रता और संजीदगी आवश्यक होती है।

  3. राग और ताल: ध्रुपद गायन में राग और ताल का पालन बहुत सख्ती से किया जाता है। इसे प्रमुख रूप से चौताल, धमार, सूल ताल और तिवड़ा ताल में गाया जाता है।

  4. अलाप: ध्रुपद गायन की शुरुआत विस्तृत अलाप से होती है, जिसमें गायक बिना ताल के राग का विस्तार करता है। अलाप तीन भागों में विभाजित होता है: स्थाई, अंतर, और संचारि।

  5. बंदिश: ध्रुपद में बंदिश या रचना का महत्वपूर्ण स्थान है। बंदिशें भक्ति, नीतिपरक और वीर रस पर आधारित होती हैं। इन्हें ठेकेदार लय में गाया जाता है।

  6. पखावज संगत: ध्रुपद गायन में पखावज का प्रमुख रूप से उपयोग होता है, जो गायक को लय का समर्थन देता है। पखावज की संगत ध्रुपद की गंभीरता और गरिमा को और बढ़ाती है।

  7. स्वर और शब्दों का महत्व: ध्रुप में स्वर और शब्दों का महत्व होता है। गायक स्वरों की शुद्धता और शब्दों की स्पष्टता पर विशेष ध्यान देता है।

ध्रुपद के प्रमुख प्रकार

ध्रुपद गायन शैली – अधिकांश प्राचीन ध्रुपद ओके 4 भाग होते थे  –  स्थाई, अंतर, संचारी और आभोगवर्तमान समय में ध्रुपद के केवल 2 भाग होते हैं – स्थाई और अंतरा। 

  1. स्थाई: यह बंदिश का पहला भाग होता है, जिसमें गायक स्थिरता से राग का परिचय कराता है।
  2. अंतर: यह बंदिश का दूसरा भाग होता है, जिसमें गायक राग के विस्तार को और गहराई से प्रस्तुत करता है।

ध्रुपद के प्रमुख घराने 

ध्रुपद गायन शैली के कई प्रमुख घराने हैं, जिनमें से प्रमुख हैं:

ध्रुपद के प्रमुख गायक 

ध्रुपद गायन शैली के कई प्रसिद्ध गायक और परिवार हुए हैं, जिनमें डागर बंधु, उस्ताद जिया मोइनुद्दीन डागर, उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर, पंडित राम चतुर मल्लिक, और पंडित विदुर मल्लिक शामिल हैं।

ध्रुपद की तालें – गायकी आलाप

ध्रुपद गायन शैली के शब्द अधिकतर ब्रजभाषा के होते हैं।  इसमें वीर और श्रृंगार रस की प्रधानता होती है। ध्रुपद चारताल, ब्रह्मताल, सूतताल, तीव्र मत्तताल, शिखर ताल आदि पखावज के तालो में गाया जाता है।द्रुपद की संगति पखावज में होती थी, किंतु आजकल पखांवाज का प्रचार कम होने से लोग तबले के साथ ही ध्रुपद गा लेते हैं। ध्रुपद में सर्वप्रथम नोम – तोम का सविस्तार अलाप करते हैं। इस अलाप के भी चार भाग होते हैं। आलाप की गति उसके तीसरे अंग से धीरे-धीरे बढ़ाई जाती है और इसी स्थान से गमक का प्रयोग आरंभ किया जाता है। द्रुपद में खटके अथवा तान के समान चपल स्वर समूह नहीं दिखायें जाते हैं, बल्कि मीड़ और गमक का अधिक प्रयोग होता है। आलाप के पश्चात सर्वप्रथम पूरे द्रुपद को उसके चारों भाग सहित गाते हैं और फिर विभिन्न प्रकार की लकारी दिखाते हैं। ध्रुपद में लयकारी को विशेष स्थान प्राप्त है। गीत की बंदिश द्वारा अथवा उसके शब्दों द्वारा विभिन्न बोल बनाते हुए लयकारी का विस्तार करते हैं  प्राचीन काल में द्रुपद गाने वाले को कलावंत कहा जाता था। ख़माज राग का प्रचलित गीत ” राजत रघुवीर धीर, भंजन भव भीर पीर ” द्रुपद ही है।  

ध्रुपद का सांस्कृतिक महत्व

ध्रुपद का भारतीय संगीत और संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह संगीत की एक पवित्र और शास्त्रीय शैली है, जो न केवल संगीत की गंभीरता और गहराई को प्रदर्शित करती है, बल्कि भारतीय संस्कृति और इतिहास की भी एक महत्वपूर्ण धरोहर है।

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