भारतीय संगीत का इतिहास – Shastriya Sangeet Ka Itihas

Shastriya Sangeet Ka Itihas

इस पोस्ट में, हम भारतीय संगीत का विस्तृत इतिहास (Bhartiya Sangeet Ka Itihas) प्रस्तुत करते हैं, जिसमें भारतीय संगीत का विकास, शास्त्रीय संगीत (Shastriya Sangeet) और संगीत के ऐतिहासिक महत्व की जानकारी शामिल है।

 संगीत के इतिहास का कालविभाजन

 

भारतीय संगीत के इतिहास को निम्नांकित 4 भागों में विभक्त किया जा सकता है।
 

(1)    अति प्राचीन काल (वैदिक काल) : 2000 ईसा सन् पूर्व से 1000 ईसा पूर्व तक।
(2)    प्राचीन काल  (वैदिक संस्कृति परंपरा समाप्त हो जाने के बाद) : 1000 ईसा पूर्व से, सन 800 ईसा तक।
(3)    मध्यकाल (मुस्लिम काल) : 800 ईसा से 1800 ईसा तक।
(4)    आधुनिक काल (अंग्रेजी शासनकाल) : 1800 ईसा से 1950 ईसा तक।

अति प्राचीन काल – वैदिक काल (2000 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व तक)

वैदिक काल में संगीत का प्रमुख स्थान था, और यह काल भारतीय संगीत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण शुरुआत का प्रतीक है। इस काल में संगीत के प्रारंभिक रूपों का विकास हुआ, और इसके प्रमाण हमें विभिन्न वेदों और शास्त्रों में मिलते हैं। आइए, विस्तार से इस काल की विशेषताओं को समझें:

1. संगीत का प्रचार और वेदों का योगदान:

  • ऋग्वेद: ऋग्वेद में संगीत के प्रति गहरी श्रद्धा थी। इसमें मृदंग, वीणा, वंशी, डमरू जैसे वाद्य यंत्रों का उल्लेख किया गया है। ये यंत्र धार्मिक अनुष्ठानों और यज्ञों में उपयोग होते थे। संगीत के माध्यम से मंत्रों का उच्चारण और ध्यान केंद्रित करना मुख्य उद्देश्य था।
  • सामवेद: सामवेद को संगीतमय वेद कहा जाता है। इसमें संगीत और गायन का महत्वपूर्ण स्थान था। सामगान, यानी सामवेद का गायन, विशेष रूप से धार्मिक अनुष्ठानों और यज्ञों के दौरान होता था। इस काल में सामगान में केवल तीन स्वरों का उपयोग किया जाता था, जिन्हें उदात्त, अनुदात्त, और स्वरित कहा जाता था। धीरे-धीरे ये स्वर विकसित होकर सप्त स्वर के रूप में परिणत हुए, जो कि भारतीय संगीत का आधार बने।

2. सप्त स्वर और उनका वर्गीकरण:

  • पाणिणी शिक्षा और नारदीय शिक्षा: इस काल में पाणिणी और नारदीय शिक्षा में सप्त स्वरों का वर्गीकरण हुआ, जो इस प्रकार था:
    • उदात्त: निषाद, गंधार
    • अनुदात्त: ऋषभ, धैवत
    • स्वरित: शड्ज, मध्यम, पंचम
  • इस प्रकार, संगीत के स्वर का क्रम और उपयोग धीरे-धीरे परिष्कृत हुआ। यह सप्त स्वर बाद में भारतीय शास्त्रीय संगीत की आधारशिला बने।

3. नृत्य कला का विकास:

  • वैदिक काल में नृत्य और संगीत का गहरा संबंध था। ऋग्वेद (5।33।6) में यह उल्लेख मिलता है कि “नृत्यमनो अमृता” अर्थात नृत्य का अभ्यास अमृत के समान था। यह संकेत करता है कि नृत्य को एक दिव्य और सशक्त कला माना जाता था।
  • नृत्यकला पर शोध: लिंगपुराण के अनुसार शिव के प्रधान गण नंदिकेश्वर ने नृत्य कला पर एक ग्रंथ लिखा था जिसका नाम “भरत” था। यह ग्रंथ बाद में संक्षिप्त रूप में “अभिनय दर्पण” में संकलित हुआ। इससे यह प्रमाणित होता है कि वैदिक काल में नृत्य कला का भी महत्वपूर्ण स्थान था।
  • प्राचीन मूर्तियां और प्रमाण: प्राचीन मूर्तियों में नृत्य करती हुई देवियों और जनों की आकृतियां पाई जाती हैं, जो इस बात का प्रमाण देती हैं कि इस काल में नृत्य एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का रूप था। इसके अलावा, देवताओं द्वारा सोमरस पान के बाद नृत्य करने की प्रथा से भी संगीत और नृत्य की प्राचीनता का समर्थन होता है।

4. संगीत और नृत्य का धार्मिक संदर्भ:

वैदिक काल में संगीत और नृत्य दोनों का धार्मिक महत्व था। संगीत के माध्यम से मंत्रों का सही उच्चारण, लय और ध्वनि का संतुलन, यज्ञों और पूजा-पाठ के समय देवताओं की उपासना का एक तरीका था। नृत्य को भी एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अभ्यास माना जाता था, जो मानसिक शांति और ध्यान को बढ़ावा देता था।

भारतीय संगीत का इतिहास - Shastriya Sangeet Ka Itihas

प्राचीन काल (1000 ईसा पूर्व से 800 ई. तक)

प्राचीन काल भारतीय संगीत के विकास का एक महत्वपूर्ण दौर था। इस समय संगीत ने धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक रूपों में समृद्धि हासिल की। इस काल को दो प्रमुख हिस्सों में बांटा जा सकता है: पहले भाग में पौराणिक और बौद्ध काल (1000 ईसा पूर्व से 1 ईस्वी तक) और दूसरे भाग में संगीत के प्रकाश में आने का समय (1 ई. से 800 ई.)।

1. संगीत का प्रचार और शास्त्रों का योगदान:

इस समय के दौरान संगीत के प्रचार का ठोस प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन उपनिषदों और अन्य ग्रंथों से यह संकेत मिलता है कि संगीत इस समय भी किसी न किसी रूप में प्रचलित था।

  • भरत का ‘नाट्यशास्त्र’ (5वीं शताब्दी):
    संगीत और नृत्य के बीच गहरे संबंध को दर्शाते हुए, भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ का निर्माण किया। इसमें गायन, वादन, नृत्य, श्रुति, स्वर, ग्राम, मूर्च्छना, और जातियों का विस्तार से उल्लेख किया गया था। यह ग्रंथ न केवल नाट्यकला का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज था, बल्कि संगीत और नृत्य के विज्ञान को एक जगह संकलित करने वाला पहला ग्रंथ भी था।

    • संगीत से संबंधित अन्य ग्रंथ:
      भरत के ‘नाट्यशास्त्र’ के प्रभाव में इस समय के अन्य संगीत ग्रंथों का भी निर्माण हुआ। इनमें से दत्तिलम (5वीं शताब्दी) और मतंग मुनि का ‘बृहद्देशीय’ ग्रंथ (6वीं शताब्दी) शामिल हैं। इनमें ग्राम (स्वर की जातियाँ), मूर्च्छना (स्वरों के संयोजन), और रागों के स्वरूप का विस्तृत विवरण दिया गया।

2. संगीत का सांस्कृतिक और धार्मिक प्रसार:

इस काल में संगीत को धार्मिक अनुष्ठानों और संस्कृतियों में भी प्रमुख स्थान मिला।

  • रामायण और महाभारत:
    इन महाकाव्यों में संगीत और वाद्ययंत्रों का वर्णन मिलता है। रामायण में, लक्ष्मणजी जब सुग्रीव के महल में प्रवेश करते हैं, तो वहाँ वीणा वादन और गायन सुनते हैं। इसी प्रकार, महाभारत में भी संगीत और वाद्ययंत्रों का उल्लेख किया गया है, जैसे भेरी, मृदंग, घट, वीणा, आदि। इन महाकाव्यों में संगीत के महत्व को दिखाया गया है, जो यह दर्शाता है कि इस काल में संगीत का प्रसार हुआ था।

3. संगीत का सामाजिक और साहित्यिक प्रभाव:

  • महाकवि कालिदास (4वीं शताब्दी):
    कालिदास ने अपनी काव्य रचनाओं में संगीत का गहरे से समावेश किया। उनके काव्य में कविता और संगीत का सम्मिलन था, जिससे संगीत में नई चेतना का विकास हुआ। उनके समय में राजदरबारों में गायक और वादक सम्मानित होने लगे थे।

4. ग्रंथों और शास्त्रों का योगदान:

  • नारदीय शिक्षा और संगीत मकरंद (7वीं-8वीं शताब्दी):
    इस काल में ‘नारदीय शिक्षा’ नामक ग्रंथ और ‘संगीत मकरंद’ प्रकाशित हुआ, जिसमें राग और रागिनियों के बारे में चर्चा की गई। संगीत मकरंद में पुरुष राग और स्त्री रागों की अवधारणा का उल्लेख हुआ, जो आगे चलकर राग-रागिनी के वर्गीकरण का आधार बने।

  • सामवेदीय स्वरों का विवरण:
    नारदीय शिक्षा और अन्य ग्रंथों में सामवेदीय स्वरों को विशेष महत्व दिया गया और सात ग्राम रागों का वर्णन किया गया। इन रागों के नाम थे:

    • षाडव
    • पंचम
    • मध्यम
    • षड्जग्राम
    • साधारिता
    • कैशिक मध्यम
    • मध्यमग्राम

5. भक्ति आंदोलन और संगीत:

8वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन का प्रसार हुआ। इस समय भक्ति और संगीत के सम्मिलन से कीर्तन और भजन गायन की परंपरा प्रचलित हुई। यह संगीत का धार्मिक प्रसार था, जो संगीत को समाज के सभी वर्गों में लोकप्रिय बना रहा था।


 

प्राचीन काल में संगीत ने न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन को समृद्ध किया, बल्कि इसे साहित्य और कला के साथ जोड़ा गया। इस समय में संगीत का बौद्धिक, धार्मिक, और सामाजिक पहलुओं में विस्तार हुआ, और संगीत को एक कला के रूप में स्थापित किया गया। भरत के ‘नाट्यशास्त्र’ और अन्य शास्त्रों ने भारतीय संगीत की नींव मजबूत की, जो आगे चलकर शास्त्रीय संगीत की परंपराओं को विकसित करने में सहायक साबित हुआ।

मध्य काल (मुस्लिम काल) – भारतीय संगीत पर प्रभाव

काल अवधि: 1100 ई. से 1800 ई. तक

मुसलमानों का भारत में आगमन 11वीं शताब्दी में हुआ। उस समय तक भारतीय संगीत शास्त्र (सिद्धांत) संस्कृत में था, जिससे मुस्लिम आक्रमणकारी इसे समझने में असमर्थ रहे। हालांकि, क्रियात्मक संगीत, जैसे गायन और वादन में उन्होंने विशेष प्रगति की। इस काल में कई नए रागों की रचना हुई और नए संगीत वाद्यों का विकास हुआ, जिनका उस समय के मुस्लिम शासकों ने सम्मान किया और गायक-वादकों को प्रोत्साहन प्रदान किया।

12वीं शताब्दी की परिस्थितियाँ:
12वीं शताब्दी में, मुहम्मद गौरी और अन्य मुस्लिम आक्रमणकारियों के साथ हिंदू राजाओं के युद्ध के कारण देश में अव्यवस्था फैल गई थी। इसका संगीत प्रचार-प्रसार पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

जयदेव और गीत गोविंद:
12वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रसिद्ध कवि और संगीतज्ञ जयदेव ने गीत गोविंद नामक ग्रंथ की रचना की, जो राधा-कृष्ण की प्रेम कथा पर आधारित है। जयदेव को उत्तर भारत का प्रथम गायक भी माना जाता है। गीत गोविंद के राधा-कृष्ण संबंधी गीत आज भी गायक ताल-स्वरों में बाँधकर प्रस्तुत करते हैं।

जयदेव का जन्म बंगाल के बोलपुर के निकट केन्डुला नामक स्थान पर हुआ था, जहाँ प्रतिवर्ष उनके सम्मान में संगीत समारोह का आयोजन होता है। गीत गोविंद की लोकप्रियता से प्रभावित होकर सर एडविन आर्नॉल्ड (Sir Edwin Arnold) ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया और इसे “The Indian Song of Songs” अर्थात् ‘भारतीय गीतों के गीत’ नाम दिया।

मध्य काल में संगीत का यह समृद्धिकरण भारतीय संगीत में इस्लामी और भारतीय परंपराओं का मिश्रण था, जिसने आने वाले कालों में संगीत को एक नई दिशा दी।

संगीत का विकास – 13वीं से 14वीं शताब्दी

पंडित शारंगदेव और “संगीत रत्नाकर”
13वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पंडित शारंगदेव ने संगीत रत्नाकर नामक ग्रंथ की रचना की, जो भारतीय संगीत का एक महत्वपूर्ण आधार ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ में नाद, श्रुति, स्वर, ग्राम, मूर्च्छना, जाति आदि का गहन विवेचन किया गया है। संगीत रत्नाकर को दक्षिण और उत्तर भारतीय संगीत विद्वान समान रूप से मान्यता देते हैं। आधुनिक संगीत ग्रंथों में भी इसके अनेक उद्धरण देखे जाते हैं, जो इसकी व्यापकता और प्रभाव को दर्शाते हैं। शारंगदेव का समय 1210 से 1247 ई. के मध्य माना जाता है, और वे देवगिरि (दौलताबाद) के यादव वंश के दरबारी संगीतज्ञ थे।

मुस्लिम शासन का प्रभाव और अमीर खुसरो
1300 से 1800 ई. का काल भारतीय संगीत के विकास का समय माना जाता है। 13वीं शताब्दी के समाप्त होते ही, 14वीं शताब्दी के प्रारंभ में दक्षिण भारत पर यवनों के आक्रमण हुए, जिससे देवगिरि का यादव वंश नष्ट हो गया और भारतीय संगीत व संस्कृति पर यवनों का प्रभाव बढ़ने लगा। इसी काल में फारसी रागों का आगमन भारत में हुआ, जो संगीत में विविधता का कारक बने।

इस समय दिल्ली का शासन सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई.) के हाथ में था, जिनके दरबार में संगीत कला ने विशेष उन्नति की।

अमीर खुसरो का योगदान
अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में अमीर खुसरो नामक कुशल संगीतज्ञ और गायक राज़ मंत्री थे। खुसरो ने भारतीय संगीत में कई नए राग, वाद्य, और तालों का विकास किया, जिससे संगीत कला समृद्ध हुई। कहा जाता है कि वे पहले तुर्क थे जिन्होंने अपने देश के रागों को भारतीय संगीत में मिलाकर एक नई धारा प्रवाहित की।

गोपाल नायक और संगीत प्रतियोगिता
खिलजी के दरबार में एक अन्य प्रसिद्ध गायक, गोपाल नायक, भी पहुंचे थे। कहा जाता है कि उनकी अमीर खुसरो के साथ संगीत प्रतियोगिता भी दिल्ली में आयोजित हुई थी। यह संगीत क्षेत्र में सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रतीक थी, जिसने भारतीय संगीत पर प्रभाव छोड़ा।

इस प्रकार, 13वीं से 14वीं शताब्दी में भारतीय संगीत में न केवल सिद्धांतों का विस्तार हुआ बल्कि मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव भी देखने को मिला, जो आगे चलकर भारतीय संगीत का एक अभिन्न अंग बना।

अमीर खुसरो का योगदान – गीत, ताल, और वाद्य

अमीर खुसरो ने भारतीय संगीत में कई नए गीतों के प्रकार, ताल, और वाद्यों का आविष्कार किया, जिनका संगीत के विकास में विशेष योगदान है। उनके द्वारा किए गए योगदान निम्नलिखित हैं:

गीतों के प्रकार:

  • गज़ल
  • कव्वाली
  • तराना
  • खमसा
  • खयाल

राग:

  • जिल्फ
  • साजगिरी
  • सरपर्दा
  • यमन
  • रात की पुर्या
  • धरारी तोड़ी
  • पूर्वी

ताल:

  • भूमरा
  • आड़ा चौताल
  • सुलफाक
  • पश्तो
  • फरोदस्त
  • सवारी

वाद्य:

  • सितार
  • तबला

गोपाल नायक का योगदान
गोपाल नायक, जो अमीर खुसरो के समकालीन थे, ने भी संगीत में अपना योगदान दिया। उन्होंने पीलू, बढ़हंस सारंग, और विरम जैसे रागों का आविष्कार किया।

15वीं शताब्दी के अन्य महत्वपूर्ण योगदान

कवि लोचन और “राग तरंगिणी”
15वीं शताब्दी में कवि लोचन ने राग तरंगिणी नामक ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने प्राचीन राग-रागिनी पद्धति को छोड़कर थाट पद्धति अपनाई। उन्होंने सभी जन्य रागों को 12 थाटों में विभाजित किया। लोचन ने अपनी रचना में जयदेव और विद्यापति के उदाहरण दिए हैं, और उनके अनुसार, वर्तमान काफी थाट का प्रारंभिक रूप शुद्ध थाट है।

कल्लीनाथ की “संगीत रत्नाकर” पर टीका
विजयनगर के राजा के दरबार में पंडित कल्लीनाथ ने संगीत रत्नाकर पर विस्तृत टीका लिखी, जो संस्कृत में थी। इस टीका का संगीत शास्त्र में गहरा प्रभाव पड़ा।

सुल्तान हुसैन शर्की का योगदान
जौनपुर के बादशाह सुल्तान हुसैन शर्की (1458-1499 ई.) ने ख्याल गायकी (कलावन्ती ख्याल) का आविष्कार किया और जौनपुरी तोड़ी, सिंधु भैरवी, रसूली तोड़ी, 12 प्रकार के श्याम, जौनपुरी, सिंदूरा जैसे कई नए रागों की रचना की।

भक्ति आंदोलन का प्रभाव
15वीं शताब्दी के अंत में भक्ति आंदोलन ने जोर पकड़ा, जिसमें भजन और कीर्तन का उपयोग किया गया। चैतन्य महाप्रभु के नेतृत्व में बंगाल में संकीर्तन का प्रचार हुआ, जिससे संगीत को सामाजिक और धार्मिक बल मिला।

कर्नाटकी संगीत ग्रंथ “स्वरमेल कलानिधि”
1550 ई. के आसपास रामामाल्य ने कर्नाटकी संगीत का ग्रंथ स्वरमेल कलानिधि लिखा, जिसमें दक्षिण भारतीय संगीत के कई रागों का वर्णन है। उत्तर भारतीय संगीत से इसका सीधा संबंध नहीं है, लेकिन इसे संगीत के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।

इस प्रकार, 13वीं से 15वीं शताब्दी के दौरान भारतीय संगीत में कई महत्वपूर्ण विकास और योगदान हुए, जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत की परंपरा को समृद्ध और विविधतापूर्ण बनाया।

अकबर का समय और संगीत की उन्नति (16वीं शताब्दी: 1556 – 1605 ई.)

अकबर के शासनकाल में संगीत ने अभूतपूर्व उन्नति की। अकबर स्वयं संगीत प्रेमी थे, और उनके दरबार में 36 संगीतज्ञ थे। इनमें मियां तानसेन, बैजूबावरा, रामदास, और तानरंग खां प्रमुख थे। यह समय भारतीय संगीत के विकास का स्वर्णिम युग माना जाता है।

मियां तानसेन और बैजूबावरा

  • तानसेन राजा रामचंद्र के दरबार में कार्यरत थे, लेकिन उनकी ख्याति सुनकर अकबर ने उन्हें अपने दरबार में प्रधान गायक के रूप में नियुक्त किया।
  • तानसेन ने दरबारी कन्हरा, मियां की सारंग, और मियां की मल्हार जैसे रागों का आविष्कार किया।
  • तानसेन और बैजूबावरा की संगीत प्रतियोगिता प्रसिद्ध है।
  • तानसेन के शिष्य दो प्रमुख वर्गों में बंट गए:
    1. रवायिये: जो तानसेन द्वारा आविष्कृत रवाव बजाते थे।
    2. बीनकार: जो वीणा बजाने में निपुण थे।

प्रतिनिधि संगीतज्ञ:

  • रवायियों के प्रतिनिधि: मोहम्मद अली खां (रामपुर)।
  • बीनकारों के प्रतिनिधि: वजीर खां (रामपुर)।

स्वामी हरिदास

  • स्वामी हरिदास वृंदावन के प्रसिद्ध संत और संगीतज्ञ थे।
  • तानसेन उनके शिष्य थे।
  • स्वामी हरिदास के गायन को सुनने के लिए अकबर ने भेष बदलकर उनके दर्शन किए।
  • स्वामी जी ने संगीत को अंतरात्मा की प्रेरणा से जोड़ा, जिससे उनका गायन आध्यात्मिक ऊंचाइयों पर पहुंचा।

ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर

  • राजा मानसिंह तोमर ने ग्वालियर के प्रसिद्ध संगीत घराने की स्थापना की।
  • उन्हें ग्रुप गायकी (ध्रुपद) के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है।

संत और भक्ति आंदोलन का प्रभाव

16वीं शताब्दी संगीत और भक्ति काव्य के समन्वय का महत्वपूर्ण काल रहा।

प्रमुख संत और कवि:

  1. संत सूरदास: सूरसागर के रचयिता।
  2. संत तुलसीदास: रामचरितमानस के रचयिता।
  3. संत कबीरदास: हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक।
  4. संत मीराबाई: प्रसिद्ध कवियित्री और भजन गायिका।

इनके जीवनकाल:

नामजन्ममृत्यु
संत कबीरदास14561575
संत सूरदास15401620
संत तुलसीदास15541680
संत मीराबाई15601630

इन संतों के भजन और पद आज भी घर-घर में गाए जाते हैं।

पुंडरीक विठ्ठल के ग्रंथ (1599 ई.)

संगीत के कर्नाटकी पंडित पुंडरीक विठ्ठल ने चार महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे:

  1. सद्रागचंद्रोदय
  2. रागमाला
  3. राग मंजरी
  4. नर्तन निर्णय

ये ग्रंथ बीकानेर की लाइब्रेरी में संरक्षित हैं और भारतीय संगीत अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण हैं।

 

अकबर का समय भारतीय संगीत के विकास का स्वर्णिम युग था। संगीतज्ञों और संतों के योगदान ने भारतीय संगीत को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। साथ ही, भक्ति आंदोलन ने संगीत को धार्मिक और आध्यात्मिक साधना का माध्यम बना दिया।

जहांगीर का राज्य (17वीं शताब्दी: 1605 – 1627 ई.)

जहांगीर के शासनकाल में संगीत में कई महत्वपूर्ण योगदान हुए। उनके दरबार में कई प्रसिद्ध गायक थे, जिनमें बिलास खां, छत्तर खां, खुर्रमदाद, मख्खु, परवेज़दाद, और हमजान का नाम उल्लेखनीय है।

संगीत ग्रंथ ‘राग विवोध’

  • दक्षिण भारत के राजमुंद्री निवासी पंडित सोमनाथ ने 1610 ई. में राग विवोध नामक ग्रंथ लिखा।
  • इस ग्रंथ में वीणाओं के विभिन्न प्रकार और रागों का जन्य-जनक पद्धति से वर्गीकरण किया गया है।

संगीत दर्पण

  • 1625 ई. में पंडित दामोदर ने संगीत दर्पण लिखा।
  • इसमें संगीत रत्नाकर के कई श्लोकों का संशोधित रूप और राग-रागिनियों के ‘ध्यान’ शीर्षक से देवरूप का वर्णन किया गया।
  • इस ग्रंथ का फारसी, गुजराती और हिंदी अनुवाद भी हुआ, जिससे इसकी लोकप्रियता स्पष्ट होती है।

 

शाहजहां का शासनकाल (1628 – 1658 ई.)

शाहजहां स्वयं गायक थे और उर्दू में मधुर गाने गाते थे। उनके दरबार में कई प्रसिद्ध गायक थे, जैसे:

  • रामदास महापट्टेर
  • जगन्नाथ
  • दरबारी गायकों, दैरगया और लालखा, को चांदी की तुलना में पुरस्कृत किया गया।

 

औरंगजेब का शासनकाल (1658 – 1707 ई.)

औरंगजेब संगीत का विरोधी था। उसने संगीत और वाद्ययंत्रों पर प्रतिबंध लगाया और साज दफनाने का आदेश दिया।

  • इसके बावजूद संगीतज्ञों की व्यक्तिगत साधना जारी रही।
  • 1650 ई. के आसपास पंडित अहोबल ने संगीत पारिजात लिखा, जिसमें वीणा के तार पर स्वरों की माप और थाट की परिभाषा दी गई।
  • संगीत पारिजात का फारसी अनुवाद 1724 ई. में और हिंदी अनुवाद 1941 ई. में प्रकाशित हुआ।

अन्य ग्रंथ और विद्वान

  1. पंडित हृदयनारायणदेव: हृदय कौतुक और हृदय प्रकाश ग्रंथ लिखे।
  2. पंडित भावभट्ट: दक्षिण पद्धति पर आधारित अनूप विलास, अनूपाकुंश, और अनूप संगीत रत्नाकर ग्रंथ लिखे।

 

मुहम्मद शाह रंगीला (18वीं शताब्दी: 1719 – 1740 ई.)

मुहम्मद शाह रंगीला संगीत के प्रबल प्रेमी थे। उनके दरबार में दो प्रसिद्ध गायक सदारंग और अदारंग थे।

  • ख्याल गायकी के प्रचार का श्रेय इन्हें दिया जाता है।
  • इस समय शोरी मियां ने ‘टप्पा’ शैली का आविष्कार किया।

 

दक्षिण भारतीय संगीत में योगदान

  1. पंडित व्यंकटमखी (1660 ई.)

    • उन्होंने चतुर्दंडीप्रकाशिका ग्रंथ लिखा।
    • इसमें सप्तक के 12 स्वरों से 72 थाट और 484 रागों की उत्पत्ति सिद्ध की।
  2. पंडित श्रीनिवास (18वीं शताब्दी)

    • उन्होंने राग तत्वबोध लिखा, जिसमें 12 स्वर स्थलों की व्याख्या की गई।
  3. तंजौर के महाराजा तुलाजी राव भोसले (1763 – 1786 ई.)

    • उन्होंने संगीत सारामृत लिखा।
    • इसमें दक्षिणी संगीत पद्धति के 72 थाट और उनसे उत्पन्न 110 रागों का विवरण है।
  4. राग लक्षणम

    • यह ग्रंथ दक्षिण भारत की प्रचलित संगीत पद्धति का आधार माना जाता है।

 

17वीं और 18वीं शताब्दी भारतीय संगीत के लिए अत्यधिक समृद्ध और परिवर्तनशील युग थे। जहांगीर और शाहजहां ने संगीत को संरक्षण दिया, जबकि औरंगजेब के समय संगीत को स्वतंत्र रूप से फलने-फूलने का अवसर मिला। दक्षिण और उत्तर भारतीय संगीत शैलियों का विकास, ग्रंथों का लेखन, और ख्याल तथा टप्पा जैसी नई गायकी शैलियों का उद्भव इस काल की विशेषताएं हैं।

आधुनिक काल (अंग्रेजी राज्य)

अंग्रेज, भारतीय संगीत को अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे, साथ ही साथ अंग्रेजी सभ्यता का प्रभाव रियासतों पर भी पड़ने लगा। इसके फलस्वरूप राजा लोग भी संगीत के प्रति उदासीनता का भाव प्रकट करने लगे। इस प्रकार रियासतों से संगीतज्ञों को जो आश्रय प्राप्त हो रहा था, उसमें बाधा पड़ने लगी। फिर भी कुछ खास-खास रियासतों में विभिन्न घरानों के संगीतज्ञ संगीत साधना में तल्लीन रहे।

साथ ही, उन दिनों संगीत का प्रवेश भले घरों में निषिद्ध माना जाने लगा। इसका भी एक विशेष कारण था कि शासन वर्ग की उदासीनता के चलते संगीत कला निकृष्ट श्रेणी के व्यवसायी स्त्री-पुरुषों के बीच सीमित हो गई थी। अतः नवीन शिक्षा प्राप्त सभ्य समाज का इसके प्रति उपेक्षा रखना स्वाभाविक था।

संगीत के उत्थान में अंग्रेजों का योगदान

संगीत के भाग्य ने फिर पलटा खाया। कुछ प्रसिद्ध अंग्रेजों, जैसे सर विलियम जोन, कैप्टन डे, और कैप्टन विलर्ड ने भारतीय संगीत का अध्ययन कर इस पर कुछ पुस्तकें लिखीं। इन पुस्तकों का शिक्षित वर्ग पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और संगीत के प्रति उपेक्षा का भाव धीरे-धीरे कम होने लगा।

बिलावल थाट का उदय

आधुनिक काल में, सबसे पहले बिलावल को शुद्ध थाट मानकर 1813 ई. में पटना के एक रईस मुहम्मद रजा ने “नगमाते आसफी” नामक पुस्तक लिखी।

  • उन्होंने पूर्व प्रचलित राग-रागिनी पद्धति का खंडन करके अपना एक नया मत चलाया।
  • इसमें 6 राग और 36 रागिनियों को मान्यता देते हुए उनका नए ढंग से विभाजन किया।

जयपुर का संगीत सम्मेलन

1776 से 1804 ई. के बीच, जयपुर के महाराजा सवाई प्रतापसिंह ने एक विशाल संगीत सम्मेलन का आयोजन किया।

  • इसमें बड़े-बड़े संगीत विद्वानों को आमंत्रित किया गया और उनसे विचार-विनिमय किया।
  • इसके बाद, उन्होंने “संगीत सार” नामक पुस्तक लिखी, जिसमें बिलावल थाट को प्रमुखता से स्वीकार किया गया।

संगीत राग कल्पद्रुम

इसके बाद 1842 में श्री कृष्णानंद व्यास ने “संगीत राग कल्पद्रुम” नामक एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी।

  • इसमें उस समय तक के हजारों ध्रुपद, ख्याल और अन्य गीत (बिना स्वरलिपि के) शामिल किए गए।

उत्तर और दक्षिण भारत में संगीत का विकास

उत्तर भारत:
इस समय राग वर्गीकरण की नई पद्धति पर विचार किया जा रहा था।
दक्षिण भारत:
दक्षिण भारत संगीत का एक प्रमुख केंद्र बन चुका था। यहाँ अनेक प्रसिद्ध संगीतज्ञ, जैसे त्यागराज, श्यामशास्त्री, और सुवराम दीक्षित, संगीत कला के प्रचार-प्रसार में जुटे थे।

बंगाल का योगदान

इस परिवर्तनकाल में, बंगाल के राजा सर सुरेंद्र मोहन टैगोर और अन्य विद्वानों ने राग-रागिनी पद्धति का समर्थन करते हुए कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं।

  • इनमें “यूनिवर्सल हिस्ट्री ऑफ म्यूजिक” का विशेष उल्लेखनीय स्थान है।

संगीत प्रचार का आधुनिक काल (1900-1950 ई.)

आधुनिक काल में भारतीय संगीत के उद्धार और प्रचार का श्रेय दो महान विभूतियों को जाता है—पंडित विष्णु नारायण भातखंडे और पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर। इन दोनों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भ्रमण कर संगीत कला को पुनर्जीवित किया। उन्होंने संगीत विद्यालयों की स्थापना की और संगीत सम्मेलनों के माध्यम से संगीत पर गहन विचार-विमर्श किया। इसके परिणामस्वरूप, जनसाधारण में संगीत के प्रति विशेष रुचि जागृत हुई।

इस काल में शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ, विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने प्राचीन राग-रागिनियों और कलात्मक प्रयोगों से “रवींद्र संगीत” की रचना की, जो संगीत प्रेमियों के लिए एक नई शैली के रूप में प्रस्तुत हुआ।


 

पंडित विष्णु नारायण भातखंडे

पंडित विष्णु नारायण भातखंडे का जन्म 10 अगस्त 1860 को बंबई प्रांत के बालकेश्वर में हुआ। उन्होंने 1883 में बी.ए. और 1890 में एल.एल.बी. की पढ़ाई पूरी की, लेकिन उनकी गहरी रुचि संगीत में थी।

संगीत यात्रा और योगदान

  • 1904 में भातखंडे जी ने अपनी ऐतिहासिक संगीत यात्रा आरंभ की।
  • भारत के सैकड़ों स्थानों का भ्रमण कर उन्होंने संगीत साहित्य की खोज की।
  • उन्होंने प्रमुख गायकों का संगीत सुना और उनकी स्वरलिपियां तैयार कर “क्रमिक पुस्तक मालिका” के रूप में प्रकाशित की, जो 6 भागों में है।
  • संगीत शास्त्र के लिए उन्होंने “हिंदुस्तानी संगीत पद्धति” के 4 भाग मराठी में लिखे।
  • संस्कृत में लिखी गई उनकी कृतियाँ, जैसे “लक्ष्यसंगीत” और “अभिनव राग मंजरी”, प्राचीन संगीत की विशेषताओं को उजागर करती हैं।

उन्होंने बिलावल थाट को शुद्ध मानते हुए 10 थाट पद्धति के अंतर्गत कई रागों का वर्गीकरण किया।

संगीत सम्मेलनों का आयोजन

1916 में बड़ौदा में आयोजित एक विशाल संगीत सम्मेलन में महाराजा बड़ौदा के संरक्षण में संगीत के विद्वानों ने संगीत के कई तथ्यों पर विचार किया। इस सम्मेलन के दौरान भातखंडे जी के भाषणों को “A Short Historical Survey of the Music of Upper India” नामक पुस्तक में संकलित किया गया।

महत्वपूर्ण संस्थाएँ

भातखंडे जी के प्रयासों से विभिन्न संगीत विद्यालय स्थापित हुए, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं:

  • मैरिस म्यूजिक कॉलेज, लखनऊ (अब भातखंडे कॉलेज ऑफ म्यूजिक)।
  • माधव संगीत महाविद्यालय, ग्वालियर।
  • म्यूजिक कॉलेज, बड़ौदा।

उन्होंने संगीत के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान देकर 19 सितंबर 1936 को अंतिम सांस ली।


 

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर का जन्म श्रावणी पूर्णिमा, 1872 को बेलगांव के कुरुंदवाड में हुआ। उन्होंने पंडित बालकृष्ण बुआ से संगीत की शिक्षा ली।

संगीत प्रचार और कार्य

  • 1896 में उन्होंने संगीत प्रचार के लिए भारत भ्रमण शुरू किया।
  • अपने मधुर और प्रभावशाली गायन के माध्यम से उन्होंने संगीत प्रेमियों को आकर्षित किया।
  • उनके प्रयासों से लाहौर का गांधर्व महाविद्यालय 5 मई 1901 को स्थापित हुआ, जो बाद में बंबई में स्थानांतरित कर दिया गया।

पलुस्कर जी के शिष्यों ने मिलकर “गांधर्व महाविद्यालय मंडल” की स्थापना की, जिसके केंद्र विभिन्न शहरों में स्थापित किए गए।

संगीत और अध्यात्म

1920 के बाद, पलुस्कर जी का झुकाव अध्यात्म की ओर हो गया। उन्होंने 1922 में रामनाम आधार आश्रम की स्थापना की और उनका संगीत “राम नाम” से परिपूर्ण हो गया।

21 अगस्त 1931 को मिरज में उन्होंने प्राण त्याग दिए।

पुस्तकें और स्वरलिपियाँ

पंडित पलुस्कर ने संगीत की कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं, जिनमें शामिल हैं:

  • संगीत बालबोध
  • संगीत व बाल प्रकार
  • स्वल्पालाप गायन
  • संगीत तत्वदर्शक
  • राग प्रवेश
  • भजनामृत लहरी

उनकी स्वरलिपि प्रणाली भातखंडे पद्धति से अलग थी। उनके सुपुत्र डी.वी. पलुस्कर भी एक प्रसिद्ध गायक बने।

स्वतंत्र भारत में संगीत

1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद से संगीत का प्रचार और प्रसार द्रुत गति से बढ़ा है। स्वतंत्र भारत में संगीत ने एक सशक्त सांस्कृतिक साधन के रूप में अपनी पहचान बनाई है।

शैक्षणिक संस्थानों में संगीत

स्वतंत्रता के बाद, स्कूलों और कॉलेजों में संगीत को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। कुछ विश्वविद्यालयों ने बी.ए. परीक्षाओं में संगीत को एक प्रमुख विषय के रूप में स्थान दिया। यह कदम संगीत को औपचारिक शिक्षा का हिस्सा बनाने और इसे युवा पीढ़ी तक पहुँचाने में मील का पत्थर साबित हुआ।

रेडियो और सिनेमा का योगदान

स्वतंत्र भारत में आकाशवाणी (रेडियो) ने संगीत के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रेडियो पर प्रसारित शास्त्रीय और लोक संगीत ने देश के कोने-कोने में संगीत प्रेमियों को जोड़ा।
साथ ही, सिनेमा ने भी भारतीय संगीत के प्रचार में योगदान दिया। कई फिल्मों में शास्त्रीय रागों और लोक धुनों पर आधारित संगीत ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया।

संगीत शिक्षण संस्थान और पुस्तकें

देश के विभिन्न नगरों में संगीत शिक्षण संस्थान सुचारू रूप से कार्य कर रहे हैं। ये संस्थान न केवल शास्त्रीय संगीत बल्कि वाद्ययंत्रों और गायन की शिक्षा भी दे रहे हैं।
संगीत पर आधारित पुस्तकें और ग्रंथ प्रकाशित होने लगे, जिससे संगीत प्रेमियों और विद्यार्थियों को शास्त्रीय संगीत की गहराइयों को समझने का अवसर मिला।

सामाजिक स्तर पर संगीत की स्वीकृति

स्वतंत्रता के बाद, समाज के कुलीन परिवारों के युवक-युवतियों और महिलाओं ने भी संगीत को अपनाया। यह न केवल एक कला रूप के रूप में बल्कि एक जीवन शैली के रूप में स्वीकार किया जाने लगा। जनसाधारण के बीच भी संगीत के प्रति रुचि और सम्मान बढ़ा है।

भविष्य की संभावनाएँ

स्वतंत्र भारत में संगीत के प्रति बढ़ती अभिरुचि और प्रयासों को देखकर यह कहना उचित है कि निकट भविष्य में भारतीय संगीत अपनी विशेषताओं के साथ उच्चतम शिखर पर आसीन होगा। भारतीय संगीत अपनी समृद्ध परंपरा और गहराई से विश्व का मार्गदर्शन करेगा।

यह काल भारतीय संगीत के लिए नव जागरण का प्रतीक है, जहाँ यह न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि वैश्विक मंच पर अपनी पहचान बना रहा है।

वाद्यों के प्रकार

भारत की प्राचीन संगीत परंपरा में वाद्यों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। रामायण, उपनिषद् जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी विभिन्न प्रकार के वाद्यों का उल्लेख मिलता है। इन वाद्यों को समझने और अध्ययन करने की सरलता के लिए शारंगदेव ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘संगीत रत्नाकर’ में वाद्यों को चार मुख्य वर्गों में विभाजित किया है: तत, सुषिर, अवनद्ध, और घन। इन वर्गों को शारंगदेव ने एक श्लोक में समाहित किया:

“वाद्यतन्त्री ततं सुधिर मतम्। चर्मावनद्ध वदनमवनद्ध तु वाद्यते।
घनोमूर्तिः ऽभिधाताद्वधते यंत्र तद्धनम्”

संगीत रत्नाकर

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