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Sitar: सितार का इतिहास और विकास

सितार क्या है ?

Sitar – सितार भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक प्रमुख वाद्य यंत्र है, जिसका गहरा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व है। इसके उद्भव और विकास को लेकर विद्वानों के अलग-अलग मत हैं, क्योंकि सितार का इतिहास कई प्राचीन वाद्यों और सांस्कृतिक मिश्रणों से जुड़ा हुआ है।

सितार का उद्भव – सितार का इतिहास

सितार के जन्म और इसके निर्माण के संबंध में कोई निश्चित तथ्य नहीं है, लेकिन कुछ प्रमुख मत इस प्रकार हैं:

  1. त्रितन्त्री वीणा से उत्पत्ति: कई भारतीय विद्वानों का मानना है कि सितार का आधार प्राचीन त्रितन्त्री वीणा में है। उनका तर्क है कि यह भारतीयता से जुड़ा हुआ वाद्य है, जो भारतीय संगीत परंपराओं का अभिन्न अंग है।

  2. अमीर खुसरो का योगदान: कुछ विद्वानों का यह मत है कि 14वीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने मध्यमादि वीणा पर तीन तार चढ़ाकर इस वाद्य को ‘सहतार’ नाम दिया था। फारसी में ‘सह’ का अर्थ तीन होता है। सहतार धीरे-धीरे परिवर्तित होकर ‘सितार’ कहलाने लगा। बाद में इस वाद्य में छह और आठ तार जोड़कर इसे नया रूप दिया गया।

  3. फारसी मूल: एक अन्य मत के अनुसार सितार एक अभारतीय वाद्य है, जो परशिया (वर्तमान ईरान) से भारत में आया। परशिया में आज भी एक तारा, दो तारा, सहतारा जैसे वाद्य मिलते हैं, जिनमें तारों की संख्या के आधार पर नाम दिए गए हैं। इस दृष्टिकोण का प्रतिपादन ‘यू एण्ड म्युजिक’ पुस्तक में क्रिश्चियन डार्टन द्वारा किया गया है।


अमीर खुसरो और सितार

अमीर खुसरो की वंश और शिष्य-परंपरा ने सितार को महत्वपूर्ण रूप में विकसित किया। फिरोज खां, जो अमीर खुसरो की परंपरा के प्रमुख हस्ताक्षर माने जाते हैं, ने सितार में चार ताल में गत की एक विशिष्ट शैली विकसित की, जिसे फिरोजखानी गत कहा गया। इस शैली का बजाने का तरीका फिरोजखानी बाज कहलाया, जिसमें पखावज का उपयोग होता था। उस समय तबले का विकास नहीं हुआ था, इसलिए पखावज के साथ ही सितार की संगति होती थी।

मसीतखानी बाज और मसीत खां का योगदान

फिरोज खां के पुत्र मसीत खां ने इस शैली में नयापन लाते हुए मसीतखानी बाज को जन्म दिया। मसीतखानी बाज तबले के अनुकूल थी और इसे तीन ताल में प्रस्तुत किया जाने लगा। इस नई शैली का प्रसार तेज़ी से हुआ और इसका व्यापक प्रभाव भारतीय शास्त्रीय संगीत पर पड़ा। मसीतखानी बाज धीरे-धीरे दिल्ली बाज के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसमें विलम्बित लय की मुख्य विशेषता थी।

तानसेन परंपरा और सेनी घराना

तानसेन की शिष्य और वंश-परंपरा, जिसे सेनी घराना कहा जाता है, ने भी सितार के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तानसेन के वंशजों, विशेषकर अमृसेन और निहालसेन, ने राजस्थान के जयपुर में रहते हुए सितार के प्रचार-प्रसार में योगदान दिया। इसी परंपरा में एक नवीन गत का विकास हुआ, जिसे अमीरखानी गत कहा गया, लेकिन कुछ समय बाद यह मसीतखानी गत के समान मानी जाने लगी।

रज़ाखानी बाज और गुलाम रज़ा खां का योगदान

लखनऊ के गुलाम रज़ा खां ने सितार वादन में एक नई शैली का आविष्कार किया, जिसे रज़ाखानी बाज कहा गया। उन्होंने द्रुतलय की गत का विकास किया, जिससे संगीत में एक नई गति और शैली का समावेश हुआ। उनकी वादन शैली, जिसे रज़ाखानी या पूर्वी बाज के नाम से जाना गया, ने सितार वादन में विविधता और नवीनता का संचार किया।

निष्कर्ष

सितार का इतिहास और विकास भारतीय संगीत की बहुआयामीता को दर्शाता है। इसके निर्माण से लेकर वर्तमान स्वरूप तक, सितार ने अनेक प्रभावों और परंपराओं को अपने में समेटा है। विभिन्न संगीतकारों और घरानों ने इसे नया रूप और दिशा दी है, जिससे यह भारतीय शास्त्रीय संगीत का महत्वपूर्ण यंत्र बना है।

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