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भारतीय संगीत पद्धतियाँ और संगीत के रूप

भारतीय संगीत पद्धतियाँ

संगीत पद्धतियाँ: भारत में मुख्य रूप से दो प्रकार की संगीत पद्धतियाँ प्रचलित हैं: उत्तरी या हिंदुस्तानी संगीत पद्धति और दक्षिणी या कर्नाटक संगीत पद्धति। इन दोनों पद्धतियों में कई समानताएँ हैं, लेकिन इनकी अपनी विशेषताएँ भी हैं।

उत्तरी संगीत पद्धति

हिंदुस्तानी संगीत पद्धति के नाम से प्रसिद्ध यह पद्धति उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों जैसे बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, जम्मू-कश्मीर और महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसमें राग, तान, ठुमरी, ख्याल और द्रुत जैसी विविधता पाई जाती है, जो इसे अद्वितीय बनाती है।

दक्षिणी संगीत पद्धति

कर्नाटक संगीत पद्धति के रूप में जानी जाने वाली यह पद्धति दक्षिण भारत के तमिलनाडु, मैसूर, और आंध्र प्रदेश में लोकप्रिय है। इस पद्धति में भी विभिन्न रागों और तालों का उपयोग होता है, और इसकी अपनी विशेष धुनें और रचनाएँ होती हैं।


संगीत के रूप – संगीत के प्रकार

Sangeet Ke Roop(संगीत रूप) – प्रत्येक कला के मुख्य दो रूप होते हैं – क्रिया और शास्त्र। क्रिया के अन्तर्गत उसकी साधना विधि आती है, जबकि शास्त्र के अन्तर्गत उसका इतिहास, परिभाषिक शब्दों की व्याख्या आदि आते हैं। संगीत के भी दो रूप हैं:

१. क्रियात्मक रूप (Practical Form)

संगीत पद्धतियाँ – संगीत का क्रियात्मक रूप वह है जिसे हम कानों द्वारा सुनते हैं अथवा नेत्रों द्वारा देखते हैं। दूसरे शब्दों में, क्रियात्मक संगीत में गाना, बजाना और नाचना आता है। गायन और वादन को हम सुनते हैं और नृत्य को देखते हैं। क्रियात्मक रूप में राग, गीत के प्रकार, आलाप-तान, सरगम, झाला, रेला, टुकड़ा, आमद, गत, मींड आदि की साधना आती है। संगीत का यह पक्ष बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह श्रोता को सीधे प्रभावित करता है और कलाकार की कुशलता को प्रदर्शित करता है।

२. शास्त्र पक्ष (Theoretical Aspect)

इसमें संगीत सम्बन्धी विषयों का अध्ययन किया जाता है। इसके दो प्रकार हैं – क्रियात्मक शास्त्र और शुद्ध शास्त्र

निष्कर्ष

उत्तरी और दक्षिणी संगीत पद्धतियाँ भारतीय संगीत की दो महत्वपूर्ण शाखाएँ हैं, जो अपने अनूठे शैली और स्वरूप के लिए प्रसिद्ध हैं। इनकी समृद्ध परंपरा और गहरे सांस्कृतिक महत्व ने भारतीय संगीत को विश्वभर में विशेष पहचान दिलाई है। चाहे वह क्रियात्मक पक्ष हो या शास्त्रीय अध्ययन, संगीत की ये पद्धतियाँ सदियों से श्रोताओं को प्रभावित करती आ रही हैं।

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